सम्यक दर्शन के आठ अंग : 6. स्थिरीकरण
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स्थिरीकरण
जीवन की, सत्य की इस यात्रा में बहुत बार चूकें होंगी; बहुत बार पांव यहां-वहां पड़ जायेंगे; बहुत बार तुम भटक जाओगे। तो उसके कारण व्यर्थ परेशान मत होना और अपराध भाव भी मत लाना। यह स्वाभाविक है। जब भी तुम्हें स्मरण आ जाए, फिर अपने को मार्ग पर आरूढ़ कर लेना। उसका नाम है: स्थिरीकरण। फिर अपने को स्थिर कर लेना।
जैसे तुमने तय किया, क्रोध न करेंगे; समझ आई कि क्रोध न करेंगे; देखा, बार-बार क्रोध करके कि सिवाय दुख के कुछ भी न हुआ; देखा क्रोध करके कि अपने लिये भी नर्क बना, दूसरे के लिये भी नर्क बना–तय किया, अब क्रोध नहीं करेंगे। ऐसी समझपूर्वक एक स्थिति बनी क्रोध न करने की। लेकिन फिर भी चूकें होंगी। किसी आवेश के क्षण में पुनः क्रोध हो जाएगा। लंबी आदत है। जन्मों-जन्मों के संस्कार हैं; इतनी जल्दी नहीं छूट जाते। फिर-फिर पकड़ लिये जाओगे। तो जब याद आ जाए, जैसे ही याद आ जाए, अगर क्रोध के मध्य में याद आ जाए, तो पुनः अपने को अक्रोध में स्थिर कर लेना। अगर गाली आधी निकल गई थी, तो बस आधी को पूरा भी मत करना। यह भी मत कहना कि अब पूरी तो कर दूं। बीच से ही रोक लेना। वहीं क्षमा मांग लेना। वहीं हाथ जोड़ लेना। कहना, माफ करना, क्षमा करना, भूल हो गई। वापस लौट आना। फिर स्थिर हो जाना।
स्थिरीकरण बहुत उपयोगी सूत्र है। और जिनको जीवन को साधना है, उनके लिए निरंतर उसका उपयोग करना होगा, क्योंकि भूलें तो होंगी ही।
भगवान महावीर कहते हैं, इस सब में पड़ने की इतनी ऊर्जा खराब मत करना। आया स्मरण, कि भूल के रास्ते पर चले गये थे, तत्क्षण चुपचाप वापस लौट आना। ऐसा बार-बार स्थिरीकरण होतेऱ्होते, होतेऱ्होते,वह स्थिति घटेगी। कभी ऐसी घड़ी आ जाती है कि फिर कोई भूल नहीं होती। तुम्हारी थिरता शाश्वत हो जाती है। तुम्हारी लौ अकंप हो जाती है।
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