सम्यक दर्शन के आठ अंग : 5. उपगूहन
उपगूहन
उपगूहन का अर्थ है: अपने गुणों और दूसरों के दोषों को प्रगट न करना। यह जुगुप्सा के ठीक विपरीत है। अपने गुण प्रगट न करना और दूसरे के दोष प्रगट न करना। हम तो करते हैं उलटा ही: अपने गुण प्रगट करते हैं, जो नहीं हैं वे भी प्रगट कर देते हैं; और दूसरे के दोष प्रगट करते हैं, जो नहीं है वे भी प्रगट कर देते हैं, जो हैं उनकी तो बात ही छोड़ दो।
जिसको सत्य की खोज पर जाना है, उसे ये सारे संयम, ये अनुशासन, ये मर्यादाएं, अपने जीवन में उभारनी पड़ेंगी। अपने गुणों को मत कहना, दूसरों के दोषों को मत कहना। तुम्हारा क्या प्रयोजन है? दूसरे का दोष है–दूसरा जाने। और तुम जान भी कैसे सकते हो, क्योंकि तुम दूसरे के स्थान पर खड़े नहीं हो सकते। दूसरे की परिस्थिति का तुम्हें पता नहीं है।
दूसरे ने किस परिस्थिति में ऐसा दोष किया, इसका तुम्हें कुछ पता नहीं है। अगर वैसी ही ठीक परिस्थिति तुम्हारे जीवन में भी होती तो शायद तुम भी न बच सकते।
महावीर कहते हैं, दूसरे के दोष को बताना ही मत। तुम्हें क्या पता, किस मजबूरी में, किस कठिनाई में उसने किया हो? और तुम्हें क्या पता उसके जन्मों-जन्मों की जीवन-कथा का? लंबी यात्रा है। उस लंबी यात्रा में कहां उसने किसी दोष को अर्जित कर लिया हो, अनजाने सीख लिया हो!
और फिर तुम कौन हो निर्णायक?
तुम बीच में निंदा, तुम बीच में विरोध और व्याख्या मत करना। और ध्यान रखना, जैसे दूसरे के गुणों को देखना जरूरी, दुर्गुणों को देखना जरूरी नहीं–अपने दुर्गुणों को देखना जरूरी है, अपने गुणों को देखना जरूरी नहीं है। क्योंकि जो व्यक्ति अपने गुणों को बहुत देखने लगता है, वह फूलने लगात है गुब्बारे जैसा। उसका अहंकार मजबूत होने लगता है। तो अपने गुब्बारे को, अहंकार के गुब्बारे को दोषों को देख-देखकर फोड़ते रहना, ताकि अहंकार बड़ा न हो। और अपने गुणों की कोई चर्चा मत करना। क्योंकि अगर वे हैं तो उनकी सुगंध अपने से पहुंच जाएगी। अगर वे नहीं हैं तो चर्चा करने से कुछ सार नहीं।
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