सम्यक दर्शन के आठ अंग : 3. निर्विचिकित्सा
निर्विचिकित्सा
जुगुप्सा का अभाव। अपने दोषों को तथा दूसरों के गुणों को छिपाने का नाम है जुगुप्सा। प्रत्येक व्यक्ति उलझा है जुगुप्सा में। हम अपने दोष छिपाते हैं और दूसरों के गुण छिपाते हैं।
सारा संसार वहां खतम हो जाता है।
हम अपने दोषों को भी बड़ी सुंदर व्याख्या देते हैं। हम दूसरों के गुणों को भी स्वीकार नहीं करते, अस्वीकार करते हैं। और हम अपने दोषों को भी बचाते हैं।
हमारे जीवन में दोहरे मूल्य होते हैं। अपनी भूल को भी हम सोने से ढंक लेते हैं; दूसरे के सौंदर्य को भी हम मिट्टी से पोत देते हैं। इसको कहते हैं जुगुप्सा।
जुगुप्सा के अभाव का नाम है: निर्विचिकित्सा।
यह बहुत बहुमूल्य सूत्र है। इसे अगर खयाल में रखा तो ही तुम आत्म-रूपांतरण को पा सकोगे, अन्यथा नहीं। क्योंकि जो आदमी अपनी भूलें छिपाता है और दूसरों के गुण दबाता है, वह आदमी कभी गुणवान न हो सकेगा। दूसरे के गुण को देखना, पहचानना, स्वीकार करना; क्योंकि दूसरे में देखकर ही तो तुममें भी उसके जन्म का सूत्रपात होगा।
तो दूसरे में जब कोई महिमा दिखाई पड़े तो सम्मान और समादर से, अहोभाव से, उसे स्वीकार करना। उस स्वीकृति में, तुम्हारे भीतर भी महिमा के जन्म का पहला बीजारोपण होगा। और अपने भीतर जब कोई दोष दिखाई पड़े तो उसे छिपाना मत, क्योंकि छिपाने से दोष मिटते नहीं, छिप जाते हैं, और भीतर-भीतर बढ़ते रहते हैं। जिसे तुमने छिपाया वह बढ़ेगा। अपना दोष हो तो उसे प्रगट कर देना; उसे स्वीकार कर लेना।
तुमने कभी खयाल किया, दोष स्वीकार करते से ही तुम्हारे भीतर क्रांति घटित हो जाती है! उस दोष का तुम्हारे ऊपर कब्जा छूट जाता है।
अपनी बड़ी से बड़ी भूल को भी स्वीकार कर लेना। स्वीकार करते ही तुम हलके हो जाते हो। प्रगट करते ही तुम निर्विकार हो जाते हो। छिपाया, दबाया, तो जो आज छिपाया है उसे कल भी छिपाना पड़ेगा। इससे अंधेरा बढ़ेगा, प्रकाश घटेगा। जो हो गई हो भूल, उसे स्वीकार कर लेना।
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