सम्यक दर्शन के आठ अंग : 2. निष्कांक्षा
निष्कांक्षा
जो भी तुम करो सत्य की खोज में, उसमें कोई आकांक्षा मत रखना। क्योंकि आकांक्षा ही संसार है। अगर सत्य की खोज पर भी आकांक्षा लेकर गये, तो तुम अपने को धोखा दे रहे हो, तुम संसार में ही दौड़ रहे हो। तुम्हें भ्रांति हो गई है कि तुम सत्य की खोज पर जा रहे हो। सत्य की खोज पर वही जाता है जिसकी आकांक्षा गिर गई।
आकांक्षा को हम समझें। आकांक्षा क्या है? जैसे हम हैं उससे हम राजी नहीं हैं। एक बड़ी गहरी बेचैनी है–कुछ होने की, कुछ पाने की, कहीं और होने की, कहीं और जाने की। जहां हम हैं वहां अतृप्ति! जैसे हम हैं वहां अतृप्ति! जो हम हैं उससे अतृप्ति! कुछ और होना था, कहीं और होना था। किसी और मकान में, किसी और गांव में! कोई और देह होती! कोई और तिजोड़ी होती! लेकिन कुछ और! “कुछ और’ की दौड़ आकांक्षा है।
आकांक्षा का अर्थ है: तुम जहां हो वहां राजी नहीं। जो जहां है वहां राजी नहीं। कहीं और दिखाई पड़ता है जीवन का स्वप्न पूरा होता। वहां जो है, उसका भी जीवन का स्वप्न पूरा नहीं हो रहा है। यहां भिखमंगे तो पराजित हैं ही, यहां सिकंदर भी पराजित हैं। यहां भिखमंगे तो खाली हाथ हैं ही, यहां सिकंदर भी खाली हाथ हैं। जिस दिन तुम्हें आकांक्षा की यह व्यर्थता दिखाई पड़ जाती है, उसी दिन निष्कांक्षा पैदा होती है, निष्काम-भाव पैदा होता है।
सत्य के जगत में तुम आकांक्षा से नहीं जा सकोगे। क्योंकि सभी आकांक्षा संसार में लौटा लाती है। अगर तुम स्वर्ग की आकांक्षा से सत्य की खोज करो, चूक जाओगे। क्योंकि स्वर्ग की खोज फिर संसार की ही खोज है।
किसी भी तरह के लाभ की आकांक्षा–वह स्वर्ग का ही लाभ क्यों न हो–संसार में लौटा लायेगी, सम्यक दृष्टि पैदा न होगी।
निष्कांक्षा! कैसे निष्कांक्षा पैदा हो? आकांक्षा को समझने से; आकांक्षा की व्यर्थता को देख लेने से। अकांक्षा से कभी सत्य नहीं निकला, क्योंकि आकांक्षा स्वप्नों की जननी है। आकांक्षा का जिसने सहारा पकड़ा, वह सपनों में खो गया; उसने अपने सपनों का संसार बना लिया। लेकिन सत्य उससे कभी निकला नहीं। वह रेत की तरह है; उससे तेल निकल नहीं सकता। तेल वहां है नहीं।
ध्यान रखना, महावीर की प्रक्रिया का यह अनिवार्य हिस्सा है कि वह जो है उसे देखने को कहते हैं। आकांक्षा है तो आकांक्षा को देखो, पहचानो, परखो, चारों तरफ से अवलोकन, निरीक्षण करो, विश्लेषण करो। खोज करो कि इससे तुम जो चाह रहे हो वह हो भी सकता है? अगर नहीं हो सकता तो आकांक्षा गिर जायेगी। जो शेष रह जायेगी, चित्त की दशा, निष्कांक्षा, वही दूसरा चरण है सम्यक दृष्टि का।
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