सम्यक दर्शन के आठ अंग : 1. निःशंका

निःशंका…

सम्यक दर्शन का पहला अंग, पहला चरण: अभय। मन में कोई शंका न हो, कोई भय न हो।
साहस! क्योंकि जो साहसी हैं वे ही केवल सत्य की खोज पर जा सकेंगे। सत्य की खोज में, समझ से भी ज्यादा मूल्य साहस का है। साहस का अर्थ होता है: जहां कभी न गये हों, जिसे कभी न जाना हो, अपरिचित, अनजान, अज्ञेय–उसमें प्रवेश।

सत्य है अपरिचित। साहस के अभाव के कारण ही हम बार-बार संसार के रास्ते पर ही परिभ्रमण करते रहते हैं।
सत्य की खोज पर तो जाना पड़ता है अकेले। वहां तो कोई साथी न होगा, कोई संगी न होगा।

निःशंका, ट्रस्ट। एक गहन श्रद्धा की जरूरत होगी; एक ऐसी श्रद्धा की, जिसमें जरा भी संदेह न हो, क्योंकि जरा भी संदेह हुआ तो संदेह पैर को पीछे खींच लेता है। संदेह पैर को आगे बढ़ने ही नहीं देता। अगर तुम्हें जरा भी डर रहा और पता, पता नहीं होगा ऐसा, न होगा ऐसा–अगर ऐसी तुम आशंका में घिरे रहे, तो कदम उठेगा नहीं।

ठीक से अपनी स्थिति को समझो तो आशंका का कोई कारण ही नहीं है। आशंका के लिए जरा भी कोई आधार नहीं है। आशंका कल्पित है और जब आशंका गिर जाये, और तुम देख लो खुली आंख से कि आशंका की तो कोई बात ही नहीं है, मेरे पास कुछ है नहीं…।

आशंका नहीं चाहिये, निःशंका की स्थिति चाहिये, तो वे यह नहीं हैं कि तुम निःशंका को आरोपित करो। इतना ही हैं कि तुम अपनी आशंका को जरा गौर से खोलकर, आंखों के सामने बिछाकर तो देख लो: वहां कोई कारण है? कोई भी कारण नहीं है! जिस दिन तुम्हें ऐसी दृष्टि उपलब्ध होगी कि डरने का कोई भी कारण नहीं है, खोने का कोई उपाय नहीं, क्योंकि है ही नहीं, उसी क्षण तुम्हारे जीवन में एक नई ऊर्जा का आविर्भाव होगा। उस नई ऊर्जा को कहो: श्रद्धा, भरोसा, ट्रस्ट। उस नई ऊर्जा को कहो: निःशंका। तब तुम असंदिग्ध भाव से बिना पीछे लौटकर देखे, सत्य की खोज में निकल जाओगे। वह भाव तुम्हें, यह अनुभव कि मेरे पास कुछ भी नहीं है, ना-कुछ ही दांव पर लगाना है, मिला तो ठीक न मिला तो कुछ खोता नहीं–तो फिर दांव पर लगाने में तुम झिझकोगे नहीं। तुम सभी दांव पर लगा दोगे।

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